आप भी कर सकते मृत आत्माओ से बात
ये है इलेक्ट्रॉनिक वॉयस प्रोजेक्शन यानि ईवीपी. इसी मशीन में मृतकों की आवाजें रिकार्ड की जाती रही हैं.
क्या मृत लोग आपस में बात करते हैं? क्या कोई जीवित इंसान किसी मृत शख्स से संवाद स्थापित कर सकता है? क्या आप मुर्दों की गपशप सुन सकते हैं?
या फिर, क्या ऐसा दावा करने वाले लोग वही सुन रहे होते हैं जो वो सुनना चाहते हैं?
यह अंसभव भले ही लगता हो लेकिन दुनिया भर में इसे संभव बनाने का दावा करने वाले मौजूद हैं.
ऐसा दावा करने वाले एक ख़ास प्रणाली इलेक्ट्रॉनिक वॉयस प्रोजेक्शन (ईवीपी) का इस्तेमाल कर दावा करते हैं कि रेडियो उपकरणों के इस्तेमाल से मृत लोगों से संवाद कायम हो सकता है.
इस कहानी की शुरुआत 1969 में हुई जब एक अधेड़ लातवियन डॉक्टर ने रिकॉर्ड किए हुए ढेर सारे टेप पेश किए. उन्होंने ये टेप इंग्लैंड के बकिंगमशयर के एक गांव जेरार्ड क्रॉस में प्रस्तुत किए.
उन्होंने दावा किया था कि हिटलर, स्टालिन, मुसोलिनी ही नहीं, 20वीं सदी के कई अन्य जानी-मानी हस्तियों के साथ उन्होंने संवाद कायम किया.
उनके मुताबिक उस रिकॉर्डिंग में करीब 72,000 मुर्दों की आवाजें कैद थीं.
"ये आवाजें न सिर्फ ऊंची और स्पष्ट हैं, बल्कि पूरी तरह समझ में भी आती हैं."
अनाबेला कारडोसेः ईवीपी फोरम की एक यूजर
दावा करने वाले शख्स कोनस्टैनटिन रॉडिवे थे और वे अपनी इस तकनीक को इलेक्ट्रॉनिक वॉयस प्रोजेक्शन (ईवीपी) कहते थें.
कोनस्टैनटिन रॉडिवे के ये टेप अब भी जेरार्ड क्रॉस मे रखे हुए हैं. जेरार्ड क्रॉस प्रकाशक कॉलिन स्मिथ का गांव है. रॉडिवे को उम्मीद थी कि स्मिथ उनकी इस अदभुत खोज के बारे में एक किताब छापेंगे.
यह स्मिथ के प्रयासों का ही नतीजा रहा कि उनकी इस असाधारण शोध के बारे में, ‘एक महत्वपूर्ण खोज’ नाम से किताब आई और ईवीपी के बारे में सारी दुनिया को पता चला.
मृतकों की बातें सुनने के लिए पहले स्लेट पर लिखने और एक्टोप्लाज्म जैसे उलझे तरीके प्रचलित थे. मगर इन तरीकों के मुकाबले ईवीपी जैसी आधुनिक तकनीक ने 20वीं सदी को अध्यात्मिकता से जोड़ दिया.
ये कोनस्टैनटिन रॉडिवे हैं. इन्होंने ही ईवीपी तकनीक विकसित की थी.
आजकल, ईवीपी को पूरी दुनिया में आत्मा को खोजने और उनसे बात करने का एक मानक ज़रिया माना जाता है. आज इंटरनेट से जुड़े सैकड़ों ईवीपी फोरम हैं जिन पर पढ़े-लिखे और गंभीर किस्म के लोग आत्मा से बात करने आते हैं. उनका कहना है कि मृत क्लिक करें आत्माएं उनसे बात करती हैं.
अनाबेला कारडोसे ऐसे ही लोगों में एक हैं. वे स्पेन में रहती हैं. उनके पास पूर्ण सुसज्जित रिकॉर्डिंग स्टूडियो है तकरीबन जेरार्ड क्रॉस की ही तरह.वे कहती हैं, “मैंने जिन आवाजों को टेप किया है, वे कोई साधारण आवाजें नहीं हैं.” उन्होंने आगे कहा, “ये आवाजें न सिर्फ ऊंची और साफ हैं, बल्कि पूरी तरह समझ में भी आती हैं.”हालांकि, रॉडिवे की टेपों में कैद आवाजों के बारे में अलग-अलग राय है. किसी का मानना है कि इनमें कैद मृत आत्माओं की आवाजें स्पष्ट नहीं है. बस एक फुसफुसाहट सी सुनाई देती है.
जब प्रसारक गेल्स ब्रैनड्रेथ ने स्वर्गीय विंस्टन चर्चिल की आवाज सुनी, उनके मुंह से बरबस यही निकला, “ये तो बिलकुल विंस्टन चर्चिल की आवाज है.”
मगर दूसरी ओर कुछ और लोगों का मानना है कि ये आवाज कहीं से भी क्लिक करें ब्रितानी प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल से नहीं मिलती. उनकी चिर-परिचित रोबीली आवाज़ के मुकाबले ये आवाज़ एकदम हल्की है.
इसके बारे में सरल व्याख्या यही की गई है कि ईवीपी की आवाजें बिखरी हुई आवाजें हैं. अमूमन ये इतनी धीमी और अस्पष्ट हैं कि इन्हें समझना मुश्किल होता है कि ये आवाजें क्या कह रही हैं.
लेकिन ईवीपी के जानकार इसकी ‘व्याख्या’ कर इन्हें समझना आसान बना देते हैं.
ईवीपी के शोधकर्ता ब्रायन जोन्स सियाटल में इसी से मिलती-जुलती कुछ कोशिशें कर रहे हैं.
वे समुद्री जीव जंतु, कुत्तों, बिल्लियों यहां तक कि दरवाजों की चरमराहटें और कंकड़ों की चुर्र-मुर्र तक को रिकॉर्ड करते हैं.
एक कुत्ता अपनी मालकिन के बारे में कहता है, “अरे, शीला कहां गई?” दूसरा कुत्ता अपने मालिक की शिकायत करते हुए बोलता है, “वे तो हमेशा समुद्री यात्रा पर ही होती हैं.”
जोन्स इस तकनीक का इस्तेमाल अपराधिक मामलों को हल करने में या, उन मरीजों की मदद करने में करते हैं जिन्होंने अपनी बोलने की क्षमता खो दी है.
आत्मा' का वजन सिर्फ 21 ग्राम !
इंसानी आत्मा का वजन कितना होता है? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए 10 अप्रैल 1901 को अमेरिका के डॉर्चेस्टर में एक प्रयोग किया गया। डॉ. डंकन मैक डॉगल ने चार अन्य साथी डॉक्टर्स के साथ प्रयोग किया था।
इनमें 5 पुरुष और एक महिला मरीज ऐसे थे जिनकी मौत हो रही थी।इनको खासतौर पर डिजाइन किए गए फेयरबैंक्स वेट स्केल पर रखा गया था। मरीजों की मौत से पहले बेहद सावधानी से उनका वजन लिया गया था। जैसे ही मरीज की जान गई वेइंग स्केल की बीम नीचे गिर गई। इससे पता चला कि उसका वजन करीब तीन चौथाई आउंस कम हो गया है।
ऐसा ही तजुर्बा तीन अन्य मरीजों के मामले में भी हुआ। फिर मशीन खराब हो जाने के कारण बाकी दो को टेस्ट नहीं किया जा सका। साबित ये हुआ कि हमारी आत्मा का वजन 21 ग्राम है। इसके बाद डॉ डंकन ने ऐसा ही प्रयोग 15 कुत्तों पर भी किया। उनका वजन नहीं घटा, इससे निष्कर्ष निकाला कि जानवरों की आत्मा नहीं होती।
फिर भी इस पर और रिसर्च होना बाकी थी लेकिन 1920 में डंकन की मौत हो जाने से रिसर्च वहीं खत्म हो गई। कई लोगों ने इसे गलत और अनैतिक भी माना। इस पर 2003 में फिल्म भी बनी थी। फिर भी सच क्या है ये एक राज है।
जानें कैसे करते हैं आत्माओं से बात
कई देशों में आत्माओं से बात करने के तरीके बताए गए हैं। हर जगह इसके अलग नाम हैं। इंडोनेशिया में इसे जेलंगकुंग कहते हैं। ओइजा बोर्ड की तरह का ये खेल प्राचीन इंडोनेशिया में काफी प्रचलित था। एक कमरे में तीन से पांच लोग ये काम करते थे। दो लोग बांस से बना एक पुतला पकड़कर बैठते हैं।
पुतले के निचले हिस्से में लिखने के लिए पेंसिल या चॉक लगाई जाती है। कमरे में ऐसी खामोशी रहती है, जैसे अंतिम संस्कार हो रहा हो। अगरबत्ती जलाने के साथ ये खेल शुरू होता है। ग्रुप का लीडर पुतले के सामने बैठकर मंत्र पढ़ना शुरू करता है। वहां से गुजर रही आत्मा के पुतले में प्रवेश करने पर उसका वजन बढ़ जाता है। फिर शुरू होता है सवालों का सिलसिला। तुम्हारा नाम क्या है? इसके साथ ही पुतला पास में रखे कागज की तरफ सरकता है और अपना नाम लिखता है। इसी तरह किसी के भी बारे में सवाल-जवाब किए जाते हैं।
कहते हैं कि लीडर का माहिर होना जरूरी है। अगर वह पुतले में से आत्मा को निकालने में नाकाम रहा या फिर आत्मा नाराज हो गई तो उन लोगों को काफी नुकसान पहुंचा सकती है। फिर भी सवाल ये उठता है कि क्या जेलंगकुंग वाकई कोई शक्ति है। या फिर चालाकी से कोई और तरीका इस्तेमाल किया जाता है। एक पुतला किस तरह सवालों के जवाब दे सकता है, ये एक राज है।
इंडोनेशिया में लोग आत्माओं से बात करने के लिए जेलंगकुंग को माध्यम बनाते हैं। फिर भी क्या ऐसा हो सकता है, ये सवाल हमेशा से राज ही रहा है।
ये है इलेक्ट्रॉनिक वॉयस प्रोजेक्शन यानि ईवीपी. इसी मशीन में मृतकों की आवाजें रिकार्ड की जाती रही हैं.
क्या मृत लोग आपस में बात करते हैं? क्या कोई जीवित इंसान किसी मृत शख्स से संवाद स्थापित कर सकता है? क्या आप मुर्दों की गपशप सुन सकते हैं?
या फिर, क्या ऐसा दावा करने वाले लोग वही सुन रहे होते हैं जो वो सुनना चाहते हैं?
यह अंसभव भले ही लगता हो लेकिन दुनिया भर में इसे संभव बनाने का दावा करने वाले मौजूद हैं.
ऐसा दावा करने वाले एक ख़ास प्रणाली इलेक्ट्रॉनिक वॉयस प्रोजेक्शन (ईवीपी) का इस्तेमाल कर दावा करते हैं कि रेडियो उपकरणों के इस्तेमाल से मृत लोगों से संवाद कायम हो सकता है.
इस कहानी की शुरुआत 1969 में हुई जब एक अधेड़ लातवियन डॉक्टर ने रिकॉर्ड किए हुए ढेर सारे टेप पेश किए. उन्होंने ये टेप इंग्लैंड के बकिंगमशयर के एक गांव जेरार्ड क्रॉस में प्रस्तुत किए.
उन्होंने दावा किया था कि हिटलर, स्टालिन, मुसोलिनी ही नहीं, 20वीं सदी के कई अन्य जानी-मानी हस्तियों के साथ उन्होंने संवाद कायम किया.
उनके मुताबिक उस रिकॉर्डिंग में करीब 72,000 मुर्दों की आवाजें कैद थीं.
"ये आवाजें न सिर्फ ऊंची और स्पष्ट हैं, बल्कि पूरी तरह समझ में भी आती हैं."
अनाबेला कारडोसेः ईवीपी फोरम की एक यूजर
दावा करने वाले शख्स कोनस्टैनटिन रॉडिवे थे और वे अपनी इस तकनीक को इलेक्ट्रॉनिक वॉयस प्रोजेक्शन (ईवीपी) कहते थें.
कोनस्टैनटिन रॉडिवे के ये टेप अब भी जेरार्ड क्रॉस मे रखे हुए हैं. जेरार्ड क्रॉस प्रकाशक कॉलिन स्मिथ का गांव है. रॉडिवे को उम्मीद थी कि स्मिथ उनकी इस अदभुत खोज के बारे में एक किताब छापेंगे.
यह स्मिथ के प्रयासों का ही नतीजा रहा कि उनकी इस असाधारण शोध के बारे में, ‘एक महत्वपूर्ण खोज’ नाम से किताब आई और ईवीपी के बारे में सारी दुनिया को पता चला.
मृतकों की बातें सुनने के लिए पहले स्लेट पर लिखने और एक्टोप्लाज्म जैसे उलझे तरीके प्रचलित थे. मगर इन तरीकों के मुकाबले ईवीपी जैसी आधुनिक तकनीक ने 20वीं सदी को अध्यात्मिकता से जोड़ दिया.
ये कोनस्टैनटिन रॉडिवे हैं. इन्होंने ही ईवीपी तकनीक विकसित की थी.
आजकल, ईवीपी को पूरी दुनिया में आत्मा को खोजने और उनसे बात करने का एक मानक ज़रिया माना जाता है. आज इंटरनेट से जुड़े सैकड़ों ईवीपी फोरम हैं जिन पर पढ़े-लिखे और गंभीर किस्म के लोग आत्मा से बात करने आते हैं. उनका कहना है कि मृत क्लिक करें आत्माएं उनसे बात करती हैं.
अनाबेला कारडोसे ऐसे ही लोगों में एक हैं. वे स्पेन में रहती हैं. उनके पास पूर्ण सुसज्जित रिकॉर्डिंग स्टूडियो है तकरीबन जेरार्ड क्रॉस की ही तरह.वे कहती हैं, “मैंने जिन आवाजों को टेप किया है, वे कोई साधारण आवाजें नहीं हैं.” उन्होंने आगे कहा, “ये आवाजें न सिर्फ ऊंची और साफ हैं, बल्कि पूरी तरह समझ में भी आती हैं.”हालांकि, रॉडिवे की टेपों में कैद आवाजों के बारे में अलग-अलग राय है. किसी का मानना है कि इनमें कैद मृत आत्माओं की आवाजें स्पष्ट नहीं है. बस एक फुसफुसाहट सी सुनाई देती है.
जब प्रसारक गेल्स ब्रैनड्रेथ ने स्वर्गीय विंस्टन चर्चिल की आवाज सुनी, उनके मुंह से बरबस यही निकला, “ये तो बिलकुल विंस्टन चर्चिल की आवाज है.”
मगर दूसरी ओर कुछ और लोगों का मानना है कि ये आवाज कहीं से भी क्लिक करें ब्रितानी प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल से नहीं मिलती. उनकी चिर-परिचित रोबीली आवाज़ के मुकाबले ये आवाज़ एकदम हल्की है.
इसके बारे में सरल व्याख्या यही की गई है कि ईवीपी की आवाजें बिखरी हुई आवाजें हैं. अमूमन ये इतनी धीमी और अस्पष्ट हैं कि इन्हें समझना मुश्किल होता है कि ये आवाजें क्या कह रही हैं.
लेकिन ईवीपी के जानकार इसकी ‘व्याख्या’ कर इन्हें समझना आसान बना देते हैं.
ईवीपी के शोधकर्ता ब्रायन जोन्स सियाटल में इसी से मिलती-जुलती कुछ कोशिशें कर रहे हैं.
वे समुद्री जीव जंतु, कुत्तों, बिल्लियों यहां तक कि दरवाजों की चरमराहटें और कंकड़ों की चुर्र-मुर्र तक को रिकॉर्ड करते हैं.
एक कुत्ता अपनी मालकिन के बारे में कहता है, “अरे, शीला कहां गई?” दूसरा कुत्ता अपने मालिक की शिकायत करते हुए बोलता है, “वे तो हमेशा समुद्री यात्रा पर ही होती हैं.”
जोन्स इस तकनीक का इस्तेमाल अपराधिक मामलों को हल करने में या, उन मरीजों की मदद करने में करते हैं जिन्होंने अपनी बोलने की क्षमता खो दी है.
आत्मा' का वजन सिर्फ 21 ग्राम !
इंसानी आत्मा का वजन कितना होता है? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए 10 अप्रैल 1901 को अमेरिका के डॉर्चेस्टर में एक प्रयोग किया गया। डॉ. डंकन मैक डॉगल ने चार अन्य साथी डॉक्टर्स के साथ प्रयोग किया था।
इनमें 5 पुरुष और एक महिला मरीज ऐसे थे जिनकी मौत हो रही थी।इनको खासतौर पर डिजाइन किए गए फेयरबैंक्स वेट स्केल पर रखा गया था। मरीजों की मौत से पहले बेहद सावधानी से उनका वजन लिया गया था। जैसे ही मरीज की जान गई वेइंग स्केल की बीम नीचे गिर गई। इससे पता चला कि उसका वजन करीब तीन चौथाई आउंस कम हो गया है।
ऐसा ही तजुर्बा तीन अन्य मरीजों के मामले में भी हुआ। फिर मशीन खराब हो जाने के कारण बाकी दो को टेस्ट नहीं किया जा सका। साबित ये हुआ कि हमारी आत्मा का वजन 21 ग्राम है। इसके बाद डॉ डंकन ने ऐसा ही प्रयोग 15 कुत्तों पर भी किया। उनका वजन नहीं घटा, इससे निष्कर्ष निकाला कि जानवरों की आत्मा नहीं होती।
फिर भी इस पर और रिसर्च होना बाकी थी लेकिन 1920 में डंकन की मौत हो जाने से रिसर्च वहीं खत्म हो गई। कई लोगों ने इसे गलत और अनैतिक भी माना। इस पर 2003 में फिल्म भी बनी थी। फिर भी सच क्या है ये एक राज है।
जानें कैसे करते हैं आत्माओं से बात
कई देशों में आत्माओं से बात करने के तरीके बताए गए हैं। हर जगह इसके अलग नाम हैं। इंडोनेशिया में इसे जेलंगकुंग कहते हैं। ओइजा बोर्ड की तरह का ये खेल प्राचीन इंडोनेशिया में काफी प्रचलित था। एक कमरे में तीन से पांच लोग ये काम करते थे। दो लोग बांस से बना एक पुतला पकड़कर बैठते हैं।
पुतले के निचले हिस्से में लिखने के लिए पेंसिल या चॉक लगाई जाती है। कमरे में ऐसी खामोशी रहती है, जैसे अंतिम संस्कार हो रहा हो। अगरबत्ती जलाने के साथ ये खेल शुरू होता है। ग्रुप का लीडर पुतले के सामने बैठकर मंत्र पढ़ना शुरू करता है। वहां से गुजर रही आत्मा के पुतले में प्रवेश करने पर उसका वजन बढ़ जाता है। फिर शुरू होता है सवालों का सिलसिला। तुम्हारा नाम क्या है? इसके साथ ही पुतला पास में रखे कागज की तरफ सरकता है और अपना नाम लिखता है। इसी तरह किसी के भी बारे में सवाल-जवाब किए जाते हैं।
कहते हैं कि लीडर का माहिर होना जरूरी है। अगर वह पुतले में से आत्मा को निकालने में नाकाम रहा या फिर आत्मा नाराज हो गई तो उन लोगों को काफी नुकसान पहुंचा सकती है। फिर भी सवाल ये उठता है कि क्या जेलंगकुंग वाकई कोई शक्ति है। या फिर चालाकी से कोई और तरीका इस्तेमाल किया जाता है। एक पुतला किस तरह सवालों के जवाब दे सकता है, ये एक राज है।
इंडोनेशिया में लोग आत्माओं से बात करने के लिए जेलंगकुंग को माध्यम बनाते हैं। फिर भी क्या ऐसा हो सकता है, ये सवाल हमेशा से राज ही रहा है।
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